रोगियों के रोग के आधार पर ज्योतिष शास्त्र एवं आयुर्वेद शास्त्र के संयोग से सटीक अद्भुत अटूट उपचार सम्भव :
मेरे प्यारे बन्धुवों ! एक विशेष शोध के आधार पर यह ज्ञात किया गया की इस भागमभाग जीवन काल में यदि शरीर को कोई क्षति पहुचती है तो सम्पूर्ण जीवनचर्या में ही पूर्ण विराम लग जाता है ।
रोगी या निरोगी होना शास्त्रो के अनुसार पूर्व जन्म के किये अर्जित पाप -पुण्य कर्मफल स्वरूप प्रारब्ध रूप में मनुष्य को प्राप्त होते है|ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पूर्व जन्म में किये पाप -पुण्य कर्मो के आधार पर आधि- व्याधि के रूप में ग्रहो के द्वारा शरीर में पीड़ा घनघोर कष्ट उत्पन्न होते है औषधि , दान , जप ,यज्ञ ,अनुष्ठान ,देवपूजा से रोगी को स्वस्थ एवं उसके असाध्य रोगो से मुक्त बनाया जाता है|
जन्म कुंडली के आधार पर यह जानना संभव है की किसी मनुष्य को क्या बीमारी और कब हो सकती है जन्मांक चक्र में स्थित ग्रहो की चाल उनकी दशा अंतर दशा ग्रह गोचर के शोध के द्वारा उपरोक्त प्रश्नो का उत्तर प्राप्त किया जाता है|
उदाहरण : जिस प्रकार अंधकार मय भवन में दीप प्रज्ज्वलित करके उतपन्न प्रकाश से अपने शयन कक्ष अध्धयन कक्ष आदि तक पंहुचा जा सकता है ठीक उसी प्रकार ज्योति स्वरूप ज्योतिष शास्त्र के द्वारा समस्त शुभाशुभ कर्मो को दीपक की भांति प्रकट करती है| रोग दो प्रकार से होते है
(१=) सहज रोगाध्याय : जन्म जात रोगो को सहज रोग की श्रेणी में ज्ञात किया गया है| ( जन्म कालिक अंगहीनता ,अंधापन ,वक्री होना, गूंगा ,बहरापन , पागलपन , नपुंसकता आदि सहज रोग है| अष्टम भाव ,अष्टमेश , राशि का स्वामी एवं उसकी स्थिति के फलादेशानुसार विभिन्न असाध्य एवं प्रायः दीर्घ कालिक शारीरिक रोगो को ज्ञात कर उपचार किया जाता है|
(२=) आगन्तु रोगाध्याय : मन -वचन- कर्म के द्वारा किये गए कर्मो के फल स्वरूप शरीर में उतपन्न हलचल से शरीर की तंत्रिका तंत्र , हड्डियों एवं मष्तिष्क में ग्रसित विकार को अगन्तु रोग कहते है| ( अभिचार महामारी दुर्घटना शत्रुघात , मौसमी ज्वर , रक्त दोष ,धातु रोग , पेट -मुख में एवं वात पित्त कफ की विकृति से होने वाले घनघोर कष्ट आगन्तु रोग कहे गए है इनका विचार षष्ठेश ,षष्ठम भाव एवं पुस्थित राशि के शोध के आधार पर ज्ञात कर उपचार किया जाता है|
आयुर्वेद में कर्म दोष को ही विभिन्न रोगो के उतपन्न होने का कारण माना गया है| कहते है कलयुग में अन्न में ही प्राण है जैसा अन्न सेवन करोगे वैसा शरीर का विकास होता जायेगा । यहाँ कर्म के तीन भेद बताये गए है ।
१= संचित कर्म
२= प्रारब्ध कर्म
३= क्रियमाण
मनुष्य अपने संचित कर्मो के द्वारा प्राप्त फल को रोग ग्रस्त हो कर भोगता है जिनके एक भाग को प्रारब्ध के रूप मे वर्तमान समय में होने वाले कर्म को क्रियमाण कर्म कहते है| आचार्य चरक के अनुसार ,कुष्ठरोग ,उदररोग ,नेत्रहीनता ,पंगुता ,वाणीदोष, पक्षाघात, परस्त्रीगमन,ब्रह्महत्या, परधनापहरणं,भगन्दर ,बावसीर , अर्श आदि दुष्कर्मो के प्रभाव से उतपन्न होते है मानव द्वारा पूर्व जन्म या इह जन्म में किये गए पाप कर्मो के कारण कष्टकारी रोग शरीर को ग्रसित करते है| आज मनुष्य अज्ञानतावश अनेको क्लिष्ट रोगो को भोगते देखे जाते है| जो लोग आचार विचार दोनो से शुद्ध है शास्त्रनुसार खान -पान ,नियम -सैय्यम से दिनचर्या आरम्भ करते है वे निरोगी एवं सुखी है|
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आचार्य विमल त्रिपाठी( एम ए इन ज्योतिर् विज्ञानं )
acharyavimal1234@gmail.com